‘युद्ध’ का ऐलान कर क्यों पीछे हट गईं प्रियंका ? क्या कांग्रेस से हुई कोई चूक

क्या राहुल गांधी ने प्रियंका को वाराणसी में चुनाव लड़ने से रोक दिया? या प्रियंका ने जोश में लिए अपने फैसले को होश आने पर सुधार लिया? प्रियंका गांधी ने पिछले दिनों वाराणसी से उम्मीदवारी को लेकर सवाल पूछने पर खुद कहा था- “मुझे खुशी होगी अगर कांग्रेस अध्यक्ष मुझे वाराणसी से चुनाव लड़ने के लिए कहेंगे।” इसी मुद्दे पर जब सवाल राहुल से किया गया तो उन्होंने कहा था- “मैं आपको सस्पेंस में छोड़ देता हूं। सस्पेंस हमेशा खराब नहीं होता है।” लेकिन राहुल शायद ये भूल गए कि जब सस्पेंस से पर्दा हटता है, तो लोग उम्मीद कुछ अप्रत्याशित की कर रहे होते हैं और जब ऐसा कुछ न मिले, तो निराश भी होते हैं। वाराणसी से प्रियंका को लड़ाने का फैसला असामान्य होता। नहीं लड़ाने का फैसला एक सामान्य और नीरस निर्णय भर है।
ये प्रियंका के लिए चुनाव जीतने की लड़ाई नहीं थी
अगर प्रियंका वाराणसी में मोदी के मुकाबले उतरतीं, तो एक सांसद बनने के लिए नहीं। सच तो यह है कि कांग्रेस कितनी भी कमजोर हुई हो, वह सांसद कभी भी बन सकती हैं। वाराणसी में मोदी बनाम प्रियंका की लड़ाई कांग्रेस की इस नई महासचिव को राष्ट्रीय राजनेता बना सकती थी। राजनीति में उनकी लेट एंट्री के नुकसान की भरपाई करने वाली हो सकती थी। यूपी में कांग्रेस के पुनरुद्धार की राह खोलने का काम कर सकती थी।
कमजोर गठबंधन उम्मीदवार शालिनी यादव
प्रियंका के सामने एक बड़ी समस्या होती अगर महागठबंधन से किसी हैवीवेट को उम्मीदवार बना दिया गया होता। जबकि वहां से जो शालिनी यादव समाजवादी कोटे से उम्मीदवार बनाई गई हैं, उनका परिचय कुछ खास बिल्कुल भी नहीं है। शालिनी कांग्रेस के पूर्व सांसद श्यामलाल यादव की पुत्रवधू हैं और वाराणसी से मेयर का चुनाव लड़ चुकी हैं। इस प्रोफाइल के साथ मोदी से मुकाबला! कोई मतलब ही नहीं बनता। कांग्रेस के अजय राय फिर भी उनसे मजबूत नजर आ रहे हैं।
करारी हार में भी संकेत बुरे नहीं थे
सच तो यही है कि पिछले चुनाव के आंकड़े भी वाराणसी में कांग्रेस की अपेक्षाकृत मजबूत जमीन की ओर इशारा करते हैं। 2014 का जो चुनाव सिर्फ और सिर्फ कांग्रेस की नाकामियों पर लड़ा गया था, उसमें भी पार्टी के अजय राय वाराणसी में तीसरे नंबर पर रहे थे। उन्हें भले ही 75614 वोट ही मिले हों, लेकिन राय ने समाजवादी और बहुजन समाज पार्टी, दोनों के प्रत्याशियों को पीछे छोड़ा था। यही नहीं ये स्थिति तब थी, जब उस समय तक (आज के मुकाबले) बहुत कम विवादित और कांग्रेस का विकल्प बनने का ख्वाब देख और दिखा रहे केजरीवाल मैदान में थे। जो कि 2 लाख 9 हजार 238 वोटों के साथ नंबर-2 पर रहे थे।
यानी कांग्रेस इस बार 4 वजहों से वाराणसी के मुकाबले को सीधे-सीधे मोदी बनाम प्रियंका बना सकती थी।
पहली वजह : महागठबंधन उम्मीदवार का कमजोर होना
दूसरी वजह : केजरीवाल सरीखे किसी और और करिश्माई (अप्रत्याशित) चेहरे की गैरमौजूदगी।
तीसरी वजह : पिछले चुनाव में कांग्रेसी उम्मीदवार का प्रदर्शन।
चौथी वजह : मोदी को उनके गढ़ में चुनौती देने का मनोवैज्ञानिक लाभ।
पिछले चुनाव का अंकगणित क्या कहता है?
पिछले चुनाव में नरेंद्र मोदी को 5 लाख 81 हजार और 22 वोट मिले थे। जबकि उनके खिलाफ पड़े मतों की संख्या करीब 4 लाख थी। ये स्थिति तब थी, जब बीजेपी और उससे भी ज्यादा नरेंद्र मोदी का कोई विकल्प देश देखना तो दूर, सोच भी नहीं रहा था। उसकी आंखों में ‘अच्छे दिन’ के सपने थे। और उस अच्छे दिन का वाहक एक ही शख्स था। इस पर यहां बहस की जरूरत नहीं है कि ‘अच्छे दिन’ आए या नहीं? लेकिन जो एक बात तय है वह यह कि बीजेपी विरोधी खेमा और उसके समर्थक इस बार भगवा लहर के सामने पिछली बार की तरह हथियार डालकर बैठ नहीं गए हैं। लड़ रहे हैं। और यूपी में तो जिस एक बात की पक्की गारंटी बीजेपी के लोग भी ले रहे हैं वह है उन्हें 2014 के मुकाबले होने वाला शर्तिया नुकसान।
2014 में वोट नहीं करने वाले वाराणसी के वोटर्स
एक और आंकड़े पर गौर करें। ये आंकड़ा है वाराणसी के वोटर्स का। 2014 में वाराणसी में 16 लाख से ज्यादा वोटर थे। इनमें से 2014 के चुनाव में 10 लाख 30 हजार के करीब वोटर्स ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया था। यानी लगभग 6 लाख वोटर वोट करने ही नहीं आए थे। यानी मोदी को तब जितने वोट मिले (5 लाख 81 हजार 22 वोट) करीब उतने ही या उससे भी ज्यादा लोटर्स ने वोट ही नहीं किया। ये वोटर्स कौन थे? कुछ नहीं कहा जा सकता।
· इनमें काफी संख्या में वे बीजेपी समर्थक भी हो सकते हैं, जो मोदी की जीत की गारंटी मानकर घर से निकले ही न हों।
· इनमें से बड़ी संख्या उन बीजेपी विरोधी वोटर्स की भी हो सकती है, जो कांग्रेस या फिर दूसरे बीजेपी विरोधी दलों की नाकामियों से निराश होकर घर बैठ गए हों।
कुछ भी हो सकता है।
कांग्रेस और प्रियंका दूसरी स्थिति में से अपने लिए सकारात्मक संकेत ढूंढकर मैदान में उतर सकती थीं। उन्होंने शायद पहली स्थिति को मजबूत मानकर वाराणसी से उतरने का विचार त्याग दिया।
हालांकि वाराणसी में इससे ज्यादा वोटर्स के निकलकर आने और वोट करने की उम्मीद भी नहीं की जाती है। क्योंकि ये 2014 ही था, जब इतना भारी मतदान हुआ था। वर्ना इससे पहले कभी यहां 7 लाख वोटर भी बूथ तक नहीं पहुंचे। 2009 की ही बात करें तो महज 6 लाख 65 हजार के करीब वोटर्स ने वोट डाले थे और जीतने वाले उम्मीदवार मुरली मनोहर जोशी को उतने वोट भी नहीं मिले (करीब 2 लाख 3 हजार) थे, जितने कि 2014 में हारने वाले अरविंद केजरीवाल को (करीब 2 लाख 9 हजार) मिल गए।
2022 की जमीन और मजबूत कर सकती थीं प्रियंका
पिछले दिनों प्रियंका ने अपने कार्यकर्ताओं के बीच खुद कहा था। 2022 की तैयारी करो। वह यूपी विधानसभा चुनाव की बात कर रही थीं। कांग्रेस को पता है कि यूपी में मजबूत हुए बिना वह या तो केंद्र की सत्ता से दूर रहेगी या फिर सहयोगियों के रहमो-करम पर एक कमजोर सरकार के नेतृत्व का अपयश झेलेगी। ऐसे में वाराणसी से मोदी को चुनौती देकर वह यूपी के अपने कार्यकर्ताओं में नया जोश भर सकती थीं। नए कैडर को अपने साथ जोड़ सकती थीं। अगर प्रियंका ऐसा कर पातीं, तो हारकर भी प्रदेश में पहले के मुकाबले मजबूत कांग्रेस की बुनियाद रख सकती थी।
अमेठी का उदाहरण सामने था
2014 में स्मृति ईरानी भले ही राहुल गांधी से हार गईं, लेकिन राहुल गांधी को मिले 4 लाख 8 हजार 651 मतों के मुकाबले अपने 3 लाख 748 मतों को दिखाकर मनोवैज्ञानिक जीत का दावा करती रहीं। पूरे 5 साल करती रहीं। राहुल से ज्यादा बार अमेठी गईं और बीजेपी ने फिर से उन्हें राहुल के सामने मैदान में उतार दिया। और जब राहुल अमेठी से 2093.9 किलोमीटर दूर वायनाड की दूसरी सीट से लड़ने गए, तो बीजेपी ने इसे कांग्रेस अध्यक्ष का अमेठी से भाग खड़ा होना बता दिया।
इसी मनोविज्ञान के साथ प्रियंका वाराणसी से उतर सकती थीं।
मोदी बनाम प्रियंका का मनोविज्ञान
किसी से भी पूछ लें शायद यही कहेगा कि मोदी बनाम प्रियंका के मुकाबले में जीत मोदी की ही होगी। लेकिन ये हार चुनाव के बाद 23 मई को मिलती। उससे पहले अभी यूपी और देश की बड़ी हिन्दी पट्टी में चुनाव बाकी है। प्रियंका का वाराणसी से उतरना बाकी बचे चार चरणों में कांग्रेस की संभावनाओं पर या तो कुछ खास असर नहीं डालता या अच्छा ही असर करता। बुरा तो कतई नहीं। लेकिन प्रियंका पार्टी और खुद के लिए मौका चूक गईं।
और हां, प्रियंका की कोई भी करीबी हार (1-1.5 लाख वोटों से) मैच हारकर भी दिल जीतने वाली (समर्थकों के लिए) होती। 2022 के लिए संभावनाएं बढ़ाती। 2024 की बुनियाद तैयार करती। प्रियंका गांधी को कांग्रेस के अंदर बड़ा बनाती और बीजेपी के खिलाफ विपक्ष में वह एक जोखिम लेने वाली मजबूत राजनेता कहलातीं।
आक्रमण ही सुरक्षा का सबसे बेहतर जरिया है
अगर कांग्रेस बीजेपी की कामयाबी के इस सबसे बड़े मंत्र को अपनाने के लिए तैयार नहीं है, तो उसे आने वाले समय में इससे अलहदा उतनी ही मजबूत रणनीति ढूंढनी पड़ेगी।

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