महाराष्ट्र विधानसभा का वर्तमान कार्यकाल 9 नवंबर को खत्म हो रहा है और इससे एक दिन पहले ही मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने पद से इस्तीफा दे दिया है. हालांकि अभी भी राज्य में सरकार बनाने को लेकर विकल्प खुले हुए हैं. माना जा रहा है कि फडणवीस ने इस्तीफा देकर शिवसेना पर दबाव बनाने की कोशिश की है.
शिवसेना के साथ मिलकर सरकार बनाने को लेकर बने गतिरोध के बीच सत्तारुढ़ भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने फैसला लिया है कि वह राज्य में अल्पमत वाली सरकार नहीं बनाएगी. बीजेपी को मालूम है कि उसके पास बहुमत नहीं है और अल्पमत के साथ अगर वह सरकार बनाती है तो शिवसेना को कांग्रेस-एनसीपी के साथ मिलकर सरकार बनाने का बहाना मिल जाएगा.
सरकार गठन के 2 विकल्प
हालांकि राज्य में सरकार के गठन को लेकर अभी भी दो विकल्प हैं. पहला यह कि बीजेपी और शिवसेना के बीच समझौता हो जाए और नई सरकार का गठन हो या फिर दूसरा विकल्प है कि शिवसेना एनसीपी के साथ मिलकर कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाए. हालांकि दूसरे विकल्प में दिक्कत यह है कि शिवसेना दोनों ही पार्टियों की धुर-विरोधी रही हैं.
पहले विकल्प के तहत सरकार बनाने के लिए शिवसेना को बीजेपी से मुख्यमंत्री पद की मांग छोड़नी पड़ेगी या फिर बीजेपी ने शिवसेना से 50-50 के फॉर्मूले को लेकर जो वादा किया है उसे पूरा करे. अगर इन दोनों विकल्पों में से किसी एक पर भी सहमति नहीं बनती है.
फिलहाल 9 नवंबर से एक दिन पहले मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया. 9 नवंबर को विधानसभा का कार्यकाल खत्म हो रहा है. हालांकि जिस तरह से दोनों में तनातनी दिख रही है उससे इसकी संभावना कम ही दिख रही है.
राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी उन्हें नई सरकार बनने तक केयरटेकर मुख्यमंत्री के रूप में नियुक्त कर सकते हैं ताकि सरकार बनाने की अन्य कोशिशों पर विचार किया जा सके. अगर सरकार के गठन को लेकर कुछ प्रगति नहीं होती है तो राज्यपाल महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन लागू करने की सिफारिश कर सकते हैं. ऐसा होने पर 9 नवंबर के बाद राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू हो जाएगा.
नियमों के अनुसार नई विधानसभा में नई सरकार नहीं बनने की सूरत में नवनियुक्त विधायक बतौर विधायक पद की शपथ नहीं ले सकते.
पहले भी सरकार बनाने पर फंसे पेच
कांग्रेस से अलग होकर शरद पवार ने राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) का गठन 1999 में किया था, एनसीपी और कांग्रेस ने अलग-अलग चुनाव लड़ा था. शिवसेना-बीजेपी सत्ता में थी और फिर से सत्ता में वापसी की कोशिशों में लगी थी. इस बीच विधानसभा चुनाव परिणाम आया तो 75 सीट लेकर कांग्रेस सबसे बड़ी एकल पार्टी बनी जबकि एनसीपी के खाते में 58 सीटें आईं.
शिवसेना-बीजेपी गठबंधन को 125 सीटें मिली थी जिसमें शिवसेना को 69 और बीजेपी को 56 सीटें मिली थीं. तत्कालीन राज्यपाल पीसी एलेक्जेंडर ने शिवसेना-बीजेपी गठबंधन को सरकार बनाने का न्यौता दिया, लेकिन गठबंधन के पास बहुमत नहीं था और कांग्रेस ने एनसीपी के साथ बातचीत शुरू की फिर दोनों में समझौता हो गया.
18 अक्टूबर को विलासराव देशमुख ने एनसीपी और कुछ निर्दलीय विधायकों के समर्थन से मुख्यमंत्री पद की शपथ लिया. हालांकि इस सरकार के गठन में 11 दिन लग गए थे.
मुख्यमंत्री पद को लेकर तकरार
2004 में भी 2019 की तरह ही सरकार के गठन को लेकर जबर्दस्त तनाव दिखा था. 16 अक्टूबर 2004 को विधानसभा चुनाव के परिणाम आए जिसमें कांग्रेस-एनसीपी को 140 सीटें मिलीं जबकि शिवसेना-बीजेपी के पास 126 सीटें थीं और वो बहुमत से दूर थी.
कांग्रेस-एनसीपी के पास निर्दलीय विधायकों का भी समर्थन था, लेकिन सरकार बनाने को लेकर पेच था कि मुख्यमंत्री किस पार्टी का हो. एनसीपी के पास 71 और कांग्रेस के पास 69 सीटें थीं. इस आधार पर एनसीपी के पास मौका था कि वह कांग्रेस से मुख्यमंत्री पद की मांग करे. उसके ऐसा करने पर मामला फंस गया.
कांग्रेस-एनसीपी के पास बहुमत होने के कारण भी वह सरकार नहीं बन पा रही थी, और 19 अक्टूबर के विधानसभा भंग होने के दिन तक सरकार बनाने को लेकर सहमति नहीं बन सकी.
इसके बाद 16 दिन तक दोनों दलों के बीच लगातार विचार-विमर्श के बीच सहमति बनी और विलासराव देशमुख ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली, जबकि एनसीपी के खाते में 3 अतिरिक्त मंत्री पद दिए गए. 13 दिन तक राज्य में विधानसभा अस्तित्व में नहीं थी, लेकिन तत्कालीन राज्यपाल मोहम्मद फजल ने इंतजार किया और दोनों दलों को आपसी रजामंदी करने का समय दिया.
इस तरह से देखा जाए तो महाराष्ट्र में चुनाव पूर्व गठबंधन और परिणाम आने के बाद भी सहयोगी दलों के बीच विवाद जारी रहा और सरकार के गठन को लेकर काफी माथापच्ची करनी पड़ी. इस बार भी यही स्थिति है.